कोटद्वार – उत्तराखंड की शांत वादियों में आज असंतोष की एक लहर बह रही है। प्रदेश के मूल निवासी माने जाने वाले कुमाऊनी और गढ़वाली समुदायों की पहचान और हक-हकूकों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हाल ही में कुछ शोध और सामाजिक संगठनों की गतिविधियों ने यह गंभीर प्रश्न खड़ा किया है—क्या उत्तराखंड में मूल निवासी अब बाहरी समुदाय माने जाएंगे?
“उत्तराखंड एकता मंच” के बैनर तले हुए एक जन-अभियान में यह सामने आया है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को संविधान की 5वीं अनुसूची, जिसमें जनजातीय क्षेत्र शामिल होते हैं, से 1971 में बाहर कर दिया गया था। इसके विपरीत, देश के अन्य हिमालयी राज्यों में रहने वाले लोगों को आज भी जनजातीय दर्जा प्राप्त है।

विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तराखंड का पारंपरिक समाज—जिसमें फूलदेई, हरेला, खतड़ुवा, ऐपण, जागर, हिलजात्रा, पशुपालन व वनोपज आधारित जीवनशैली शामिल है—जनजातीय मानकों पर पूरी तरह खरा उतरता है। फिर भी, कुमाऊनी-गढ़वाली समुदायों को आज तक उस संवैधानिक मान्यता से वंचित रखा गया है जो उनके सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण के लिए आवश्यक है।
इस बीच चिंताएं तब और गहरी हुईं जब राज्य में बसे कुछ बाहरी समुदायों को भूमि अधिकार और मूल निवास का दर्जा मिलने की संभावनाएं जताई गईं। इनमें 1971 के पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आए शरणार्थी, नेपाली मूल के लोग, और वन गुर्जर प्रमुख हैं। सवाल यह है कि जब उत्तराखंड के असली पर्वतीय निवासी ही अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो बाहर से आए लोगों को प्राथमिकता क्यों?
समाज के बुद्धिजीवी और युवा अब इस अन्याय के विरुद्ध मुखर हो रहे हैं। वे सरकार से मांग कर रहे हैं कि उत्तराखंड को फिर से 5वीं अनुसूची में शामिल किया जाए, ताकि कुमाऊनी और गढ़वाली समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक विरासत को संरक्षण मिल सके।
इस जनांदोलन का उद्देश्य केवल अधिकार प्राप्त करना नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए अस्मिता, पहचान और सम्मान की नींव तैयार करना है। अगर अब भी यह समाज नहीं जागा, तो भविष्य में वह अपनी जड़ों से कट कर रह जाएगा।
उत्तराखंड के कुमाऊनी-गढ़वाली समाज को अब एकजुट होकर आवाज उठानी होगी—अपने अस्तित्व, अधिकार और अस्मिता की रक्षा के लिए।

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