उत्तराखण्ड ज़रा हटके नैनीताल

मानव को प्रकृति के साथ जोड़ने की परंपरा में शामिल है हरेले का पर्व….

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नैनीताल-हमारी संस्कृति हमारी पहचान ही मानव को प्रकृति के साथ जोड़ने की परंपरा में शामिल है जिससे प्रकृति की संरक्षण के प्रति सभी संचेत हो सके । इन्ही विविधता में हरेला  जो उत्तराखंड का एक प्रमुख लोक पर्व है.पर्यावरण के प्रति जागरूक करता है हरेले के दिन हरेले को इष्ट-देव को अर्पित करके अच्छे धन-धान्य, दुधारू जानवरों की रक्षा और सगे-संबंधियों की कुशलता की कामना की जाती है.

 

ऋग्वेद में लिखा गया है कि इस त्यौहार को मनाने से समाज कल्याण की भावना विकसित होती है। हरेला का अर्थ हरियाली से है इस दिन सुख समृद्धि और ऐश्वर्य की कामना की जाती है तथा भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरुक किया जाता है ।हरियाली का प्रतीक हरेला  उत्तराखण्ड के मुख्यता कुमाऊं में मनाया जाता है । वर्ष में तीन हरेले मनाए जाते  है  पहला चैत्र माह अप्रैल मैं तथा  नवमी को काटा जाता है। दूसरा श्रावण माह में   आषाढ़  सावन में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। तीसरा आश्विन माह में नवरात्र और दशहरा के दिन काटा जाता है। चैत्र व अश्विन का हरेला  मौसम परिवर्तन दिखाता है तो  श्रावण माह में हरेला सामाजिक महत्व के साथ सावन का आगमन बताता है

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हरेला बोने के लिए टोकरी में  मिट्टी डालकर गेहूं, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों , मक्का,  आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। इसे पूजा जाता है और परिवार के सभी सदस्य  हरेले के तिनकों कोे सिर में चढ़ा कर लाख हरयाव, लाख बग्वाली, जी रया, जाग रया, बच रया, यो दिन यो मास भैंटन रया आदि सुख समृद्धि की कामना पूरे उत्तराखंड में की जाती है तथा पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा लेते है   उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला  पर्व प्रत्येक वर्ष कर्क संक्रांति को, श्रावण मास के पहले दिन  आयोजित होता है। इस वर्ष  2022  में  हरेला पर्व  16 जुलाई को मनाया जाएगा। रिवाज के अनुसार कुछ लोग दस दिनों तथा कुछ लोग ग्यारा दिनों  हरेला  बौते है।कर्क संक्रांति से सूर्य भगवान दक्षिणायन हो जाते  है तथा इस दिन से दिन रत्ती भर घटने लगते है। और रातें बड़ी होती जाती है गढ़वाल मंडल में यह त्यौहार एक कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। गढवाली परम्परा में  कही कही अपने कुल देवता के मंदिर के सामने मिट्टी डालकर , केवल जौ उगाई जाती है। इसे बोने का कार्य महिलाएं नहीं केवल पुरुष करते हैं।

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वो पुरुष जिनका यज्ञोपवीत हो चुका होता है। और पूजन के बाद स्वयं धारण करते हैं। हरेला त्यौहार प्रकृति से प्रेम एवं नव फसल की खुशियों व आपसी प्रेम का प्रतीक त्यौहार है।इस त्यौहार पर वृक्षारोपण को विशेष महत्व दिया जाता है। इस दिन के प्रति यह धारणा है, कि हरेले पर्व पर लगाया गया पौधा या  किसी पेड़ की लता या टहनी भी जमीन में रोप दे तो वह भी जड़ पकड़ लेती है। मूलतः यह पर्यावरण के प्रति जागरूक उत्तराखण्डी जनता का वृक्षारोपण के द्वारा वनस्पति की रक्षा और विकास ही  लक्ष्य रहा होगा।  हरेला पर्व के साथ ही सावन का महीना शुरू हो जाएगा।

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हरेले के त्योहार में लोग अपने घर के हरेले (समृद्धि) को अपने तक ही सीमित न रखकर उसे दूसरे को भी बांटते हैं। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक सद्भभाव और प्रेम की अवधारणा है। हरेले के त्योहार में भौतिकवादी चीज़ों की जगह मानवीय गुणों को वरीयता दी गई है। मानवीय गुण हमेशा इंसान के साथ रहते हैं जबकि भौतिकवादी चीज़ें नष्ट हो जाती हैं। प्रकृति के प्रेम तथा उल्लास एवं हरियाली का संदेश देता है हरेला की  प्रकृति के प्रति प्रेम श्रद्धा का पर्व है जो पौधारोपण  एवं पर्यावरण के  प्रति  उल्लासित  करना है।

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