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श्री भागवत कथा में किया गया श्री कृष्ण का व्यखन…..

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रुद्रपुर-(एम सलीम खान) दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से श्री मद भागवत महापुराण साप्ताहिक कथा ज्ञानयज्ञ का आयोजन किया गया है। जिस के अन्तर्गत सर्वश्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सुश्री वैष्णवी भारती जी ने माहात्मय के अंतर्गत बताया भगवान श्रीकृष्ण में जिनकी लगन लगी है उन भावुक भक्तों के ह्रदय में प्रभु के माधुर्य भाव को अभिव्यक्त करने वाला, उनके दिव्य रस का आस्वादन करवाने वाला यह सर्वोत्कृष्ट महापुराण है। जिसमे वर्णित वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं उसके अंगभूत साधन चतुष्टय को प्रकाशित करने वाला है तथा माया का मर्दन करने में समर्थ है। श्रीमदभागवत भारतीय साहित्य का अपूर्व ग्रंथ है।

 

यह भक्ति रस का ऐसा सागर है जिसमे डूबने वाले को भक्तिरूपी मणि-माणिक्यों की प्राप्ति होती है। भागवत कथा वह परमतत्व है जिसकी विराटता अपरिमित व असीम है। वह परमतत्व इसमें निहित है जिसके आश्रय से ही इस परम पावन भू-धाम का प्रत्येक कण अनुप्राणित और अभिव्यंजित हो रहा है। यह वह अखंड प्रकाश है जो मानव की प्रज्ञा को ज्ञान द्वारा आलोकित कर व्यापक चिंतन के द्वार खोल देता है। यह वह कथा है जो मानव के भीतरी दौर्बल्यता के रूपांतरण हेतु अविरल मन्दाकिनी के रूप में युगों युगों से प्रवाहित होती आ रही है। उन्होंने बताया कि भागवत महापुराण की कथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। साध्वी जी ने बताया परीक्षित को सरस्वती के तट पर गाय व बैल का जोड़ा दिखा जिसे कलयुग मार रहा था। यहां गाय धरती का और बैल धर्म का प्रतीक हैं।

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धरा हमारी माँ है और धर्म वह तत्व जो मानव को मानव बनाता है। यही मानव धर्म है कि हम अपनी धरा की रक्षा करें। इसे ही लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र की पहचान विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत से ही है। संसार में यदि कोई लोकतंत्र का सच्चा प्रतिनिधि है तो वह भारत ही है। लोक शब्द ल और क ध्वनियों के योग से बना है। ल का अर्थ है-लालित्य, सौन्दर्य, रस, जीवन और ओ का अर्थ है-चतुर्दिक विस्तार। क का अर्थ है-परमतत्व। इस प्रकार लोक का भाव है परम के सौन्दर्य और जीवन रस का चतुर्दिक फैलाव। लोक का क्षेत्र असीमित है। इसके क्षेत्र में धरती, सागर, गगन भी है। काल में अतीत, वर्तमान, भविष्य भी है। क्षेत्र में फैले थलचर, जलचर, नभचर हैं।

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काल में बैठा अतीत का इतिहास, वर्तमान का कर्म और भविष्य की कल्पनाएं भी हैं। पदार्थों और जीवों  के मध्य मनुष्य की समग्रता का विस्तार इसमें समाया है। लोक एक इकाई है जिस की नजर में सभी एक हैं। जिस के लिए चाणक्य, शिवाजी, महाराणा प्रताप, अरविंद की तरह एकात्म साधना करनी होगी। इसी साधना से फूटेगा रामराज्य का संकल्प। गूंजेगा अखंड भारत का स्वर। यह लोक अनेकता का नहीं एकता का बोधक है। इसकी परिधि में आने वाली समस्त इकाईयां इसी एकता में बंधी हैं। प्रभु शांति दूत बन कर हस्तिनापुर की राज्य सभा में उपस्थित हुए। दुर्योधन ने पांडवो का अधिकार वापिस देने से इंकार कर दिया। हम जानते है कि युद्ध के रूप में भयानक विभीषिका का सामना करना पड़ा। कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन स्वजनों को सामने देख कर मोहाग्रस्त हो गया। रण करने से पूर्व ही शस्त्र का परित्याग कर दिया।

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श्री कृष्ण ने देखा की उनके द्वारा चुना गया यंत्र निराशा, अवसाद, निरुत्साह से ग्रसित हो चुका है। उन्होंने उसे अपने सामर्थ्य और बल से परिचित करवाया। विराट रूप का दर्शन करवाया एवं आत्मज्ञान से सराबोर किया। विचारणीय तथ्य यह है कि भीष्म पितामह और द्रोणाचार्ये, महारथी कर्ण सभी मिलकर भी दुर्योधन को बचा नहीं सके। उधर मात्र अकेले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विजयी बना दिया। शस्त्र बल से श्रेष्ठ आत्मबल है यह भगवान ने समझाया। आज भी हम जीवन युद्ध में अर्जुन की तरह हताश हो जाते हैं। ऐसे में भौतिक संसाधन नहीं अपितु ब्रह्मज्ञान ही मात्र इन मानसिक व्याधियों से बचा सकता है।

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