पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा, खरल, व चक्की का रुप देना इनका पेशा
काशीपुर-(सुनील शर्मा) आज के आधुनिक युग में जहां सभी कुछ आधुनिक हो गया है वहीं आज भी अपनी परंपरा प्राचीन वस्तुओं का अपना अलग ही महत्त्व है। अभी भी लोगों का मानना है कि खाने के साथ चटनी का मजा पत्थर के सिल बट्टे पर हाथ से बनी चटनी में ही आता है। काशीपुर के चैती मेले में सिल बट्टा व चक्की के पार्टस बनाने वाले कारीगर सबसे पहले आकर सबसे आखिर में जाते हैं
तथा पूरे मेले में अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए चिलचिलाती धूप में भी पत्थर को तराश कर उन्हें नया रुप देने में लगे हैं। पिछले 2 वर्षों से कोरोना के चलते चैती मेले का आयोजन नहीं होने से इस बार इन पत्थर के कारीगरों को उनके सामान की अच्छी बिक्री होने की उम्मीद है। पेश है काशीपुर से जायजा लेती एक रिपोर्टः-
काशीपुर में लगने वाले चैती मेले में पत्थर तराशती इन महिलाओं को देखकर एक प्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी की याद आ जाती है जिन्होने अपनी कविता वह तोडती पत्थर में लिखा था किः-
वह तोडती पत्थर,मैने देखा उसे इलाहबाद के पथ पर,चढ रही थी धूप गर्मियों के थे दिन,दिवा का तमतमाता रुप उठी झुलसाती हुई लू,रुई ज्यों जलती हुई भू,गर्द चिनगी छा गयी प्रातः हुई दोपहर,वह तोडती पत्थर। ” गर्मी के दिनों में चैती मेले में सबसे पहले आकर सबसे आखिर में जाने वाले इन कारीगरों के यहां यह काम पुराने जमाने से होता चला आ रहा है। पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा,
खरल, व चक्की का रुप देना इनका पेशा है ! जिससे लोग अपना आनाज अपने हाथों से पीसते हैं और सब्जी में प्रयोग होने वाले मसाले भी खुद बनाते हैं। यह कारीगर वर्षों से पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के जिला मुरादाबाद से आते रहे हैं। कहा जाता है कि पत्थर की चक्की और सिल बट्टे पर चटनी पीसने से किसी भी तरह कि बीमारी नहीं होती साथ ही इसके पिसे मसाले और चटनी से खाने में स्वाद तो आता ही है साथ ही इस पर मसाले और दलिया, दालें चटनी पीसने से शरीर फुर्तीला बना रहता है !
ये गरीब लोग इसी से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं परंतु गरीबों के लिए जो योजनाएं सरकार चला रही है उनका लाभ ये लोग नहीं ले पाते इसका मुख्य कारण इन लोगों को इन योजनाओं की जानकारी न होना है। इसके साथ ही मेला सरकारी तो हुआ जहां मेला सरकारी होने से इन कारीगरों को उम्मीद बंधी थी कि इनका रोजगार अब और तरक्की करेगा लेकिन प्रशासन की मेले की महंगाई के चलते इनकी दुकानें काफी महंगी हो गई है। साथ ही इनसे प्रशासन के द्वारा 2 गुना 3 गुना किराया लिया गया।
इन लोगों के मुताबिक हमें लोगों के ऊपर रोजी रोटी का संकट भी गहरा गया है क्योंकि चैती मेले हर साल सड़क किनारे अपना सिलबट्टा का कारोबार चलाने वाले इन गरीबों की कारीगरी के शौकीन अब इनके पास तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इनके मुताबिक वहीं दूसरी तरफ जहां इन्हें स्थान दिया गया है वही सुविधाओं के नाम पर सब कुछ शून्य है और यह सब कारीगर इसके लिए प्रशासन को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके मुताबिक प्रशासन ने ठेकेदारों को मेले को ठेके पर दे दिया और ठेकेदार के द्वारा इनका उत्पीड़न किया जा रहा है।
मूलतः पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कांजीसराय मोहल्ले से आने वाले ये कारीगर पत्थरों को तराशकर सिल बट्टा तथा आटे की चक्की आदि बनाते हैं तथा अपना तथा अपने परिवार का पेट पालते हैं। चैती मेले से इन्हें इतनी ज्यादा आमदनी तो नहीं होती लेकिन 10 रु हर पीस पर बच जाते हैं। कारीगरों के मुताबिक महंगाई काफी हद तक हावी है। उनके अनुसार पिछले 2 वर्षों से कोरोना के चलते चैती मेले का आयोजन नहीं होने से इस बार मेले में श्रद्धालुओं के काफी संख्या में आने की उम्मीद है जिसके बाद यह कारीगर भी मेले से उम्मीद लगाए बैठे हैं।
आधुनिक युग में बिजली से चलने वाली आटा चक्की तथा मिक्सी आदि के चलन में आने के कारण इन कारीगरों की रोजी रोटी पर संकट गहरा गया है। जरुरत है सरकारी योजनाओं को अमल में लाकर इन गरीब मजदूरों तक पहुचाने की जिससे कि इन्हें भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके। लेकिन काशीपुर में पिछले अनेक वर्षों से चैती मेला सरकारी होने से लाभ की आस में इस बार अपने कारोबार को लेकर पहुंचे इन पत्थर के कारीगरो की सुनने वाला कोई नहीं है।
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